गोपेश्वर (चमोली)। पुत्रदायिनी के रूप में विख्यात माता अनसूया देवी की तपस्या मात्र से निसंतान दंपतियों की पुत्ररत्न की मनौती पूरी होती आई है। इसके चलते ही अब तक कई सूनी गोदें मां ने भर कर रख दी है। फिर भी मां अनुसूया सतीत्व की परीक्षा में खरी उतरी।

श्री विष्णोरंश योगीशो, दतात्रेयो महामुनिरू। गूढ चर्याम् चरंल्लोके भक्त वत्सल एधते ॥ अर्थात भगवान विष्णु के अंश से योगी दत्तात्रेय महामुनि गुप्त रूप से संसार में चलते हुए भक्तों की आस्था को बढ़ाते रहे हैं। पौराणिक मान्यता के अनुसार योगेश्वर दतात्रेय की माता अनसूया थी। वह सदाचार परायणा तथा परम साध्वी थी। उनका पतिव्रत धर्म जगत प्रसिद्ध है। सती माता अनसूया के बारे में आम बात प्रचलित है कि भगवती श्री लक्ष्मी जी, श्री सती जी और श्री सरस्वती देवी को अपने पतिव्रत धर्म पर अत्यधिक गर्व हो गया था। तीनों का यह सोचना था कि इस त्रिलोकी में कोई भी स्त्री हमसे बढकर पतिव्रता नहीं हो सकती। भगवान को भक्त का अभिमान कदापि सहन नहीं होता। उन्होने अद्भुत लीला करने की सोची। भक्त वत्सल भगवान ने देवर्षि नारद के मन में प्रेरणा उत्पन्न कर दी। नारद जी घूमते हुए देव लोक पहुंचे और बारी-बारी से तीनों देवियों के पास गए।

उन्होने भगवान अत्रिमुनि की पत्नी अनसूया के पतिव्रत्य के सामने उनके सतीत्व को नगण्य बताया। तब तीनों ने अपने अपने स्वामियों भगवान विष्णु, महेश और ब्रह्मा से यह हठ किया कि जिस किसी भी उपाय से अनुसूया का पतिव्रत भंग होना चाहिए। स्त्री हठ को पूरा करने के लिए तीनों साधु वेश धारण कर महामुनि अत्रि आश्रम पहुंचे। अतिथि रूप में आए वे तीनों का सती अनुसूया अर्ध्य

कंद मूलादि से आतिथ्य करने को उद्यत हुई किंतु उन्होने कहा कि हम आपका आतिथ्य स्वीकार नहीं करेंगे जब तक आप निर्वस्त्र होकर हमारे सामने नहीं आती हैं। ऐसी बात सुन कर अनसूया स्तब्ध रह गई। फिर सोचा अतिथि देव तुल्य होते हैं। मुझे उनका सत्कार करना ही है। अनुसूया ने अपने स्वामी अत्रि का ध्यान किया और संकल्प लिया कि यदि मेरा पतिव्रत धर्म सत्य है तो ये तीनों 6-6 मास के शिशु हो जाएं। तब छद्म वेशधारी ब्रह्मा, विष्णु और महेश शिशु रूप में रोने लगे। माता ने उन्हें गोद में लेकर स्तनपान कराया और तीनों अनसूया के पुत्र रूप ही हो गए।

देवलधार गांव निवासी ज्योतिषाचार्य हरि प्रसाद सती के अनुसार तीनों देव पत्नियां चिंतित हो उठी। तब वे तीनों मां अनसूया के पास आई। अपने पति देवों की याचिना की देवी अनसूया ने अपने पतिव्रत्य के बल से यथावत पूर्ण रू प में कर दिया। तीनों देवियों ने तब वर मांगने को कहा। कालांतर में यही तीनों देव अनसूया गर्भ से प्रकट हुए। ब्रह्मा के अंश से चंद्रमा, शंकर के अंश से दुर्वासा तथा विष्णु अंश से दत्तात्रेय का जन्म हुआ। या देवी सर्व भूतेषु विष्णु मायेति शब्दिता, नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः। इसके चलते ही हर साल दत्तात्रेय जयंती मेला अनसूया आश्रम में लगता है। ज्योतिषाचार्य सती के अनुसार तीनों देवियों के स्वरूप में खल्ला गांव में मां अनसूया (ब्रह्माणी स्वरूप), बणद्वारा गांव में ज्वाला (वैष्णवी स्वरूप में) तथा कठूड में ज्वाला देवी (रूद्राणी स्वरूप) में मान्यता मिली। उनके अनुसार बणद्वारा की वैष्णवी की ही प्रतिमूर्ति देवलधार तथा सगर में प्रतिष्ठापित हुई हैं। अब मंडल गांव में भी मां अनसूया का मंदिर स्थापित हो गया है। दत्तात्रेय जन्म जयंती पर सभी देव डोलियां अनुसूया आश्रम पहुंचती हैं। भक्तों का हुजूम उमड़ पड़ता है। इस बार 25 और 26 दिसंबर को दत्तात्रेय जन्म जयंती मेला है तो लोगों की भीड़ अभी से जुटने लगी है। मां के दर्शनों को दूर-दूर से लोग पहुंचने लगे हैं।

पुत्र दायनी के रूप में विख्यात है माता अनसूया

पौराणिक मान्यता के अनुसार अनसूया मंदिर के गर्भ गृह व अहाते में रात्रिभर जागकर ध्यान, जपकृतप करने से भक्तों के भाग्य जाग उठते हैं और उनकी कोख हरी हो जाती हैं। इस रात्रि जागरण के बीच नींद के किसी अलसाये झोंके में कोई स्वप्न दिख गया तो मान लिया जाता है कि करूणा मूर्ति माता अनसूया ने उनकी प्रार्थना सुन ली है। अखंड विश्वास और अटूट श्रद्धा के आगे सारे तर्क धरे के धरे रह जाते हैं। सदियों से रात्रि जागरण की यह परंपरा बदस्तूर जारी है। ऐसा यह अवसर निसंतान दंपतियों को दत्तात्रेय जयंती की चतुर्थदशी व पंचमी को मिलता है। दिसंबर माह में ही ये दिन पड़ते हैं। पुराणों में माता अनसूया को सर्वश्रेष्ठ पुत्रदायिनी देवी बताया गया है। माता अनसूया ‘पुत्रदा’ के रूप में विख्यात हो गई।

पौराणिक है अनसूया मंदिर

सन्नाटेदार घने-गहरे जंगलों और बर्फीली पहाडियों के बीच बसा है माता अनसूया देवी का मंदिर। इसकी प्राकृतिक छटा देखते ही बनती है। प्रकृति प्रेमियों के लिए तो यह अद्भुत तपोभूमि है। चमोली जिला मुख्यालय गोपेश्वर से 13 किमी दूर मंडल के अनुसूया गेट से पांच किमी की पैदल दूरी पर स्थित है यह मंदिर। समुद्र तल से आठ हजार फीट ऊंचाई पर स्थित यह मंदिर बेहद पवित्र स्थल के रूप में विद्यमान है। मंदिर के पास स्थानीय पुजारियों की बसागत भी है और खेतीबाड़ी भी । बाकी जंगल, झरने, घास के बड़े-बड़े मैदान और आकाश की ऊंचाइयों को छूते बर्फ के शिखर भी यहां मौजूद हैं। मंदिर परिसर से सटे जंगलों में नाना प्रकार की रंग-बिरंगी चिडियाएं यहां का सन्नाटा तोड़ती हैं। इस मेले में यही जंगल लोगों के लिए रात्रि गुजारने का अद्भुत साधन भी बनते हैं। जंगलों में लोग रात भर अलाव जला कर ठंड से निजात पाते हैं तो मैदान में लोक गीत व लोक नृत्य के उल्लास में मस्त हो जाते हैं। तिब्बत सीमा से सटी नीती तथा माणा घाटी के जनजाति की महिलाएं इस मेले में आकर नृत्य प्रस्तुत कर खास रंगत बिखेर देती हैं। इनके बाजूबंद, छोड़ा नृत्य व जागर तथा पौणा नृत्य विशेष आकर्षण लिए होते हैं।

प्रातः लोग डेढ किमी आने अत्रि कुंड के विशाल झरने को निहारने, पूजा करने तथा स्नान के लिए जाते हैं। हालांकि इस मंदिर की स्थापना का सही-सही अनुमान ज्ञात तो नहीं है किंतु मौजूदा मंदिर ऐतवार गिरि स्वामी ने बनवाया है। बेहद कलात्मक व खूबसूरत इस मंदिर की शिल्प शैली बेहद अनूठी है। प्राचीनकाल का विशाल मंदिर 1803 में आए भूकंप से नष्ट हो गया था। बताया जाता है कि यह मंदिर शंकराचाय की ओर से निर्मित है। अभी भी पुराने मंदिर के अवशेष का एक बड़ा पत्थर मौजूदा मंदिर के पिछवाड़े में खड़े विशाल देवदार वृक्ष पर अटका हुआ दिखाई देता है।

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